मलूकदास

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मलूकदास, भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा कय प्रमुख कवि अउर रचनाकार रहे। वनकय भक्तिकालीन निर्गुणवादी भक्त कवि में प्रमुख स्थान अहै। वे रामानंदी संप्रदाय कय आचार्य रहे। वनमें जन्मसिद्‌ध चकत्कारिता व विलक्षण साधुता रहा। मलूकदास जी कय मलूकशतक सुप्रसिद्ध बाटै ओनमें वय यथार्थ कय बोध करावत अहय


मरकत मणि सम श्याम है श्री सीतापति रूप । कोटि मदन सकुचात लखि नमै 'मलूक' अनूप ॥१॥

कह 'मलूक' श्रीराम ही धर्मोद्धारन काज । श्रीमद्रामानन्द भे भाष्यकार यतिराज ॥२॥

जगद्गुरु रामानन्दजी आचार्यन शिरताज । तिनहिं 'मलूका' नमत है जय जय श्रीयतिराज ॥३॥

कह 'मलूक' प्रस्थान त्रय भाष्य रच्यो आनन्द । श्रीवैष्णव मत कमल रवि स्वामी रामानन्द ॥४॥

जिनकी अनुपम कृपा से तत्त्व परयो पहिचान । उन श्रीगुरुपद पद्म का धरत 'मलूका' ध्यान ॥५॥

वेदान्तसिद्धान्त — तत्त्व विशिष्टाद्वैत है यही वेद-सिद्धान्त । कहै 'मलूका' लखि परै गुरु की कृपा अभ्रान्त ॥६॥

जीव प्रकृति ईश्वर इन्हीं तीन तत्त्व का ज्ञान । आवश्यक है मोक्ष महँ-कहै 'मलूका' तान ॥७॥

आत्मा — ज्ञानाश्रय है आत्मा देहेन्द्रिय नहिं प्रान । कहै 'मलूका' नित्य अरु निर्विकार तेहि जान ॥८॥

कहै 'मलूका' राम के ये शरीर अरु शेष । स्वप्रकाश अणु जीव हैं धार्य नियाम्य अशेष ॥९॥

सदा पराश्रित जीव हैं राम सदैव स्वतन्त्र । कहै 'मलूका' भ्रान्त जो जीवहिं कहें स्वतन्त्र ॥१०॥

तत्त्वमसि — सदा प्रकार्यद्वैत को कहै तत्त्वमसि-वाक्य । नाहिं प्रकाराद्वैत यह कहत 'मलूका' वाक्य ॥११॥

सदा प्रकारी राम हैं चिदचिद् देह प्रकार । 'यस्यात्मा' इत्यादि श्रुति कहैं 'मलूका' सार ॥१२॥

तत् पद कहै परेशकों कहै 'मलूका' जान । त्वद्देही त्वं पद कहें दोउ प्रभु-ऐक्य बखान ॥१३॥

नित्यपदस्थित ईश ही अन्तर्यामी होय । नाम रूप व्याकरण हित एक 'मलूका' दोय ॥१४॥

जीव अज्ञ सर्वज्ञ प्रभु केहि विधि दुइनौं एक । कहै 'मलूका' भ्रान्त जो जीव ब्रह्म कहें एक ‌१५॥

सामानाधिकरण्य नहिं बनै तत्त्वमसि ठौर । जीव ब्रह्म के भेद बिन कहै 'मलूका' और ॥१६॥

सामानाधिकरण्यार्थ — भेद प्रवृत्तिनिमित्त का एक अर्थ पुनि होय । सामानाधिकरण्य तहँ कह 'मलूक' सब कोय ॥१७॥

तत् त्वं पद की लक्षणा चेतन में ही जान । कहत 'मलूका' अस कबहुँ कहूँ न नर मतिमान् ॥१८॥

अन्वय अरु तात्पर्य की अनुपपत्ति जब होय । तबहि 'मलूका' लक्षणा मानत है सब कोय ॥१९॥

केहि विधि दुइ कारण बिना यहाँ लक्षणा होय । कहैं 'मलूका' कार्य कहुँ बिन कारण ही होय? ॥२०॥

जीवब्रह्म-भेद — जीवपनायुत ब्रह्म के भेदवान् नहिं जीव । वस्तुपना से घट सदृश सुनहु 'मलूका' जीव ॥२१॥

कह 'मलूक' तुम यह कहौ भेद कहाँ सुप्रसिद्ध । जीव बीच तब बाध हो नहीं तो साध्य असिद्ध ॥२२॥

चेतनपनसे मुक्ति महँ प्रभु से जीव अभिन्न । ब्रह्म सदृश अस वचन सुनि होत 'मलूका' खिन्न ॥२३॥

सोपाधिक यह हेतु है भवकर्तृत्व उपाधि । कहत 'मलूक' प्रकाशपन अद्वैतिन कहँ व्याधि ॥२४॥

पक्ष तथा दृष्टान्त यदि भिन्न होयँ तब बाध । कहत 'मलूका' भेद बिन उदाहरण नहिं साध ॥२५॥

आत्मस्वरूप — गति आगति उत्क्रान्ति ये तीन जीव की होय । कह 'मलूक' तेहि हेतु से नाहिं जीव विभु होय ॥२६॥

जीव कर्मवश गहत हैं कोरी कुंजर देह । ताते मध्यम मान नहिं कह 'मलूक' सस्नेह ॥२७॥

संकोचादिक के भये होवे जीव विनाश । अवयववाली वस्तु का होत 'मलूका' नाश ॥२८॥

अभ्यागत बिन किये का कृत का होय विनाश । तेहिसे कहत 'मलूक' है आत्मा है अविनाश ॥२९॥

कह 'मलूक' यह जीव अणु हृदय बीच है थान । दीप प्रभा सम ज्ञान से शिर पीड़ादिक जान ॥३०॥

आत्मा तथा ज्ञान का भेद — ज्ञानरूप है आत्मा धर्म ज्ञान से भिन्न । प्रत्यकूपन अरु पराकूपन से 'मलूक' दोउ भिन्न ॥३१॥

'मैं जानौं' परतीति यह सार्वजनिक निर्बाध । ज्ञाता भिन्न 'मलूक' यह प्रतीति ज्ञानहिं साध ॥३२॥

जीवैक्य-निरास — कोई कहते आत्मा सब देहन महँ एक । भिन्न भिन्न सब देह महँ कहत 'मलूक' अनेक ॥३३॥

कह 'मलूक' सब देह के जीव होयँ यदि एक । एक काल महँ दुःख इक सुख भोगैं किमि एक ॥३४॥

देह भेद से जा कहहु सुखी दुखी का भेद । क्यों न 'मलूका' सौभरिहिं सुख-दुख तनु के भेद ॥३५॥

जीवभेद — बद्ध मुक्त अरु नित्य यह जीव भेद हैं तीन । कह 'मलूक' अन्यत्र पुनि बहुत भेद हैं कीन ॥३६॥

अचित् तत्त्व — मिश्र शुद्ध सत् काल यह अचित् भेद हैं तीन । कह 'मलूक' चौबीस तहँ मिश्र-भेद हैं कीन ॥३७॥

कह 'मलूक' प्रकृती महत् अहङ्कार त्रय जान । एकादश इन्द्रियन का सात्विक कारण मान ॥३८॥

तामस से तन्मात्र अरु पंच भूत हू होय । कह 'मलूक' राजसः पुनः उभय सहायक होय ॥३९॥

शुद्धसत्व अथवा नित्यविभूति — कहत 'मलूका' शुद्धसत् नित्यविभूतिहि जान । “तद्विप्णोः परमं पदम्” तहँ यह श्रुतिहि प्रमान ॥४०॥

काल — भूत भविष्यत् आदि सब व्यवहारन का मूल । कहत 'मलूका' काल है कालहिं भूलि न भूल ॥४१॥

जगन्मिथ्यात्व-निरास — कह 'मलूक' झूठे कहहिं झूठी ऐसी बात । ब्रह्म सत्य अरु जग मृषा परमारथ नहिं तात ॥४२॥

सर्व विशेषण से रहित ब्रह्म एक अद्वैत । ब्रह्मसत्यपन हेतु तब कह 'मलूक' किमि देत ॥४३॥

दृश्यपनहु के हेतु जो जग कहँ मृषा बखान । कह 'मलूक' तेहि हेतु को सोपाधिक पहिचान ॥४४॥

व्याप्ति कौनसी रीति से गही बतावहु और । मिथ्यापन अरु दृश्यपन की 'मलूक' केहि ठौर ॥४६॥

शुक्ति रजत थल कहहु तो नहिं 'मलूक' निस्तार । देखहु आनॅंदभाष्य का चतुःसूत्र-विस्तार ॥४७॥

शुक्तिरजत यहि ज्ञान का विषय सत्य पहिचान । है यथार्थ विज्ञान सब कहत 'मलूका' जान ॥४८॥

ईश्वरतत्त्व — सिरजन संहारन तथा जग के पालनहार । कहै 'मलूका' राम ही ईश सर्व-आधार ॥५०॥

मोक्ष काम धर्मार्थ के देनहार श्रीराम । दिव्य देह शुभ गुणन के हैं 'मलूक' शुभ धाम ॥५१॥

देह रूप अरु गुणन से व्यापक प्रभु सब ठौर । कह 'मलूक' सब वस्तु के बाहर भीतर और ॥५२॥

कह 'मलूक' परभक्ति से तुष्ट होयँ श्रीराम । निज भक्तहिं सायुज्य तब देत अखिलपति राम ॥५३॥

पर व्यूह अरु विभव अरु अन्तर्यामी मान । कह 'मलूक' अर्चातनुहिं हरि पञ्चम थिति जान ॥५४॥

पर साकेतनिवास हैं अवतारी श्रीराम । कह 'मलूक' परिकरनयुत वैदेही-अभिराम ॥५५॥

वासुदेव इत्यादि कहँ चतुर्यूह पहिचान । कह 'मलूक' मत्स्यादि कहँ विभव रूप से मान ॥५६॥

अन्तर्यामी रमे जस मेहँदी लोहित रूप । कह 'मलूक' अवधादि महँ अर्चामूर्ति अनुप ॥५७॥

श्रीअवधपुरी — हनुमदादि भरतादि सह तथा जानकी साथ । कह 'मलूक' जहँ कीन प्रभु निज लीला रघुनाथ ॥५८॥

अवधपुरी सो श्रेष्ठतम मोक्षदानि सुखखानि । महिमा तासु 'मलूक' पुनि को कवि सकै बखानि ॥६०॥

श्रीसरयू लीला लीला-धाम की ललित जहाँ विख्यात । कह 'मलूक' सुरसरित तेहि सरयुहिं लखि सकुचाति ॥५८॥

पञ्च संस्कार — ऊर्ध्वपुण्ड्र से होत सुख मोक्ष तथा दुखनाश । कह 'मलूक' सो पुण्ड्र लखि यम-गण होत हताश ॥६१॥

धनुर्बाण-अंकित भुजा जो जन होत 'मलूक' । सर्वपाप से मुक्त तेहि पर पद मिलत अचूक ॥६२॥

भगवत् पूर्व 'मलूक' पुनि नाम अन्त महँ दास । मुक्ति मिलत तब, शास्त्र कह जीव मात्र हरिदास ॥६३॥

तुलसी बिन नहिं हरि-भजन-अधिकारी हो जीव । कह मलूक अति श्रेष्ठ है तुलसी भूषितग्रीव ॥६४॥

जिमि सब वेदन बीच है सामवेद शिरताज । तिमि मलूक सब मंत्र महँ राममंत्र अधिराज ॥६५॥

धर्म — एक धर्म ही जात है मरे जीव के साथ । अन्य 'मलूका' नष्ट हों सब शरीर के साथ ॥६६॥

चतुर वर्ण महँ होत है ब्राह्मण यथा महान् । सब महॅं वैष्णव धर्म तिमि महत् 'मलूक' बखान ॥६७॥

विष्णु-भक्त कहँ जे कहहिं कह 'मलूक' दुर्वाक्य । परहिं नरक सुखहीन ह्वै कहत शास्त्र अस वाक्य ॥६८॥

परहित सम कोउ धर्म नहिं हिंसा सम नहिं पाप । धर्म करहिं वैष्णव सदा कह 'मलूक' नहिं पाप ॥६९॥

इन्द्रादिक सब देव अरु गंगादिक सब तीर्थ । कह 'मलूक' तहँ वसत हैं जहँ वैष्णव-पद-तीर्थं ॥७०॥

निज वर्णाश्रम-कर्म से अर्चहिं जो सियराम । कह 'मलूक' सो लहत हैं अक्षय सुख पर-धाम ॥७१॥

रामनाम — कह 'मलूक' शतसन्धियुत जर्जर गिरत शरीर । भेषज तजि रसवर पियहु नित्य नाम रघुवीर ॥७२॥

राम माहिं रमि राहत हूँ राम राम इति नाम । कह 'मलूक' शिव कहत अस सहसनाम सम राम ॥७३॥

रामनाम सम आन नहिं कलि मुँह सुगम उपाय । कह 'मलूक' योगादि महँ मन नहिं थिर गति पाय ॥७४॥

सन्तोष — क्यों 'मलूक' पचि मरत हो बुरे पेट के हेत । राम जीव के जन्मतहि मातथनन पय देत ॥७५॥

अजगर करै न चाकरी पक्षी करै न काम । 'दास मलूका' कहत है सब के दाता राम ॥७६॥

भक्ति — कर्म-योगहू व्यर्थ हो ज्ञान-योग हो रोग । कह 'मलूक' हरि-भक्ति बिन मिटै न भवको भोग ॥७७॥

एक अनन्या भक्ति महँ मुक्ति-दान की शक्ति । कहत 'मलूका' सन्त जन नव प्रकार की भक्ति ॥७८॥

नवधा भक्ति — श्रीसीतापति चरित का श्रवण प्रेम से मान । कहत 'मलूका' प्रथम यह 'श्रवणभक्ति' उर आन ॥७९॥

नाम सहित रघुनाथ का प्रेम सहित गुणगान । कहत 'मलूका' दूसरी 'कीर्तन भक्ति' सुजान‌ ॥८०॥

'सुमिरन भक्ति' कहत हैं तीसरि सुनहु मलूक । निशिदिन हरि-गुण-धाम का सुमिरन करै अचूक ॥८१॥

दशरथनृप-सुत-चरण-रज जड़हिं करै चैतन्य । सोइ 'पद-सेवन-भक्ति' है चौथि 'मलूका' धन्य ॥८२॥

कौशल्या के लाल की बहुविधि अर्चा जोय । पश्चम 'अर्चन' नाम सो भक्ति 'मलूका' होय ॥८३॥

षष्ठी 'वन्दन' भक्ति है कह 'मलूक' स्वर ऊँच । प्रभु-पद-वन्दन-भक्ति है सब यज्ञन से ऊँच ॥८४॥

भक्ति सप्तमी रामकी दास्य नाम की होय । कह 'मलूक' हरि-दास बिन नहिं तारत कुल कोय ॥८५॥

बन्धु सदृश व्यवहार कहँ नर सम देखन हेत । 'सख्य भक्ति' अष्टम करहिं जन 'मलूक' करि चेत ॥८६॥

'आत्मसमर्पण' करत जन छॉडि सकल विध कर्म । जिमि जटायु तिमि नवम यह भक्ति 'मलूका' मर्म‌ ॥८७॥

श्रवण भक्ति लवकुश करे वाल्मीकि गुणगान । कह 'मलूक' सुमिरण करे कुम्भज शिष्य सुजान ॥८८॥

भरत भावयुत चरणरत शबरी अर्चन जान । कह 'मलूक' वन्दन पुनः वन्द्य विभीषण मान ॥८९॥

श्री मारुत-सुतदास अरु सखा भये कपिराज । स्वात्मार्पक तु 'मलूक' है श्री जटायु खगराज ॥९०॥

प्रपत्ति — एक बारहू शरण हित तव हूँ इमि जो याच । कह 'मलूक' श्रीराम तेहि अभय करें यह साँच ॥९१॥

गुरुदेव — जेहि से सब ब्रह्माण्ड यह कह मलूक हैं व्याप्त । तेहि हरि दर्शक गुरु बिना सुख न कहत जन आप्त ॥९२॥

कह 'मलूक' जो भजत है सद्गुरु अरु भगवान् । सोई जानै तत्त्व जो कहते वेद पुरान ॥९३॥

त्रय रहस्य अरु तत्त्वत्रय पञ्श्च अर्थ का ज्ञान । कह मलूक गुरु से लहहु जो चाहहु कल्याण ॥९४॥

चार सम्प्रदाय — जानहु श्री सनकादि अरु ब्रह्मा रुद्र उदार । कह 'मलूक' वैदिक यही सम्प्रदाय हैं चार ॥९५॥

रामानन्दाचार्य जी श्री के शुभ आचार्य । कह 'मलूक' सनकादि के हैं (श्री) निम्बार्काचार्य ॥९६॥

कह 'मलूक' श्री ब्रह्म के हैं श्री मध्वाचार्य। विष्णु स्वामि श्री रुद्र के सम्प्रदाय-आचार्य ॥९७॥

गुरुपरम्परा-प्रणाम — श्री सीतापति आदि मँह मध्यम रामानन्द । कह 'मलूक' निज-गुरुन कहँ प्रणमहु सदा अमन्द ॥९८॥

कल्याणोपदेश — परिशीलहु भाष्यादि श्री सम्प्रदाय के ग्रन्थ । कह 'मलूक' भव-तरन का इहै अकण्टक पन्थ ॥९९॥

कह 'मलूक' यहि देह से यदि चाहहु कल्यान । सन्त-संग अरु करिय नित सिय सियपतिका ध्यान ॥१००॥

श्री सीतापति कृपा से शतक कह्यों सुविचारि । कह 'मलूक' गुनि भक्ति करि लहहु भव्य फल चारि ॥१०१॥